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Wednesday 6 November 2019

गलती गांधी की भगत सिंह मामले को गलत ठहराना


                                                   
गांधी अपने सामने किसी भी चुनौती को स्वीकार नही कर पाते थे वह चुनौती बन रहे लोगो को अपने रास्ते से हटाने का पूरा प्रयास करते थे। वह चाहे चौरा चौरी का कांड हो, सांडर्स की हत्या हो, भगत सिंह की फाँसी हो, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का दिल्ली चलो आन्दोलन हो या रॉयल इंडियन नेवी का मुक्ति समर। गांधी वीरोचित सशस्त्र क्रान्ति करने वालो की हमेशा अहिंसा की ढाल लेकर आलोचना किया करते थे वो चाहते थे कि ब्रिटिस कानून के अनुसार उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिले। अहिंसा के मसीहा गांधी ने अफ्रीका से लौटने पर भारत भ्रमण किया और प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914 से 1918 ) में जर्मनो की हत्या के लिए अंग्रेजी सरकार की सेना में भारतीय युवाओं को भर्ती कराया   तो क्या वह हिंसा इसलिए नहीं थी कि क्योंकि  जर्मनो के संहार के लिए वे सैनिक उन्होंने ही भर्ती कराये थे
14 – 15 जून 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था पर गांधी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन कराया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही कहा था कि देश का बटवारा उनकी लाश पर होगा।              
अक्टूबर 1924 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनकी स्थापना सचीन्द्र सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी और पं. राम प्रसाद बिस्मिल आदि ने मीलकर की थी। इसी का नाम आगे चलकर 1928 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशनपड़ा जो कि भगत सिंह, आज़ाद, राजगुरू और सुखदेव के क्रांतिकारी विचारों का परिणाम था।
ये घटना 9 अगस्त 1925 की है जिस दिन सरकारी खज़ाना सहारनपुर से लखनऊ जा रहा था। इसी बीच उस दिन लूट की दो घटनाओं को अंजाम देने के बाद हाथ में कुछ ना आने पर सरकारी खज़ाने को लूटा गया जिसे काकोरी कांड के नाम से जाना जाता है। इनमें राम प्रसाद बिस्मिल, अस्फाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी और सचीन्द्र सान्याल को दोषी पाया गया।
इस मामले में केवल सचीन्द्र सान्याल को आजीवन कारावास हुई और बाकी सभी को 1927 में फांसी हो गई। इसमें पं राम प्रसाद बिस्मिल ने यह कहते हुए कि मैं ब्रिटिश साम्राज्य के पतन की इच्छा करता हूं कहते हुए फांसी पर झूल गए। इस घटना से भगत सिंह बहुत उद्विग्न हुए।

गलती  गांधी की भगत सिंह मामले को गलत ठहराना

3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत आया जिसका भारत में काफी विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपतराय द्वारा साइमन कमीशन का विरोध करने पर उन्हें लाठियों से खूब पीटा गया   जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए और 17 नवंबर को उनका निधन हो गया।
भगत सिंह, लाजपतराय के विचारों का पूरा समर्थन तो नहीं करते थे लेकिन एक क्रांतिकारी के रूप में उनका सम्मान उन्होंने हमेशा किया।
इसके बाद भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और आज़ाद ने 17 /12/1928 को सांडर्स की हत्या कर दी और पब्लिक सेफ्टी बिलके विरोध में 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त तथा भगत सिंह ने लाहौर सेन्ट्रल असेबंली में बम फेंका।
इनके साथ और भी लोग थे जो सरकारी गवाह बन गए और सांडर्स की हत्या के ज़ुर्म में 24 मार्च 1931 की सुबह जी सी हिल्टन ने फांसी की सज़ा की तारीख मुकर्रर की और 11 घंटे पहले ही 23 मार्च को फांसी दे दी गई। इसमें सरकारी गवाह हंसराज वोहरा और जय गोपाल थे।

गांधी की गलती भगत सिंह मामले को गलत ठहराना  गाँधी की अधूरी कोशिश
भगत सिंह और आज़ाद ने अंतिम दिनों में माना कि हिंसा से आज़ादी मिलना मुश्किल है लेकिन वे गाँधी के आंदोलनों के कभी पक्षधर नहीं रहे। जब भगत सिंह की फांसी की तारीख मुकर्रर हुई उसके पहले 5 मार्च को गाँधी इरविन पैक्ट  हुआ था   जिसमें गाँधी ने और सभी सत्याग्रहियों को मुक्त करने की मांग की गई थी लेकिन भगत सिंह को जेल से रिहा करना या उनकी सज़ा कम करने की कोई मांग गाँधी द्वारा इस पैक्ट में नहीं की गई थी।
कई लोगों नें यह सवाल भी उठाए और गाँधी के ऊपर आरोप भी लगाया कि इन्होंने कुछ नहीं किया। गाँधी ने कहा था कि भगत सिंह की देशभक्ति का मैं सम्मान करता हूं लेकिन उनके द्वारा अपनाए गए साधनों का मैं विरोध करता हूं। ठीक इसी प्रकार भगत सिंह भी गाँधी का सम्मान करते थे लेकिन उनके कार्यों के तरीकों से सहमत नहीं थे।
महात्मा गाँधी ने कहा था कि यदि मुझे इन युवाओं के साथ काम करने का मौका मिला होता तो मैं निश्चय ही उन्हें संघर्ष के इस तरीके को बदलने के लिए कहता। भगत सिंह ने अहिंसा को कभी अपनाया नहीं लेकिन हिंसा को अपना उद्देश्य भी नहीं बनाया। 14 फरवरी 1931 को मदन मोहन मालवीय ने दया याचिका दायर की जिसे खारिज़ कर दी गई।
18 फरवरी को गाँधी ने लोगों की तरफ से सज़ा को कम करवाने का प्रयास किया। गाँधी ने माना कि हमने असफल प्रयास किया और भगत सिंह को बचा नहीं पाए लेकिन उन्होंने भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए जो प्रयास किए वह वास्तव में गैर-ज़रूरी ही था।
गांधी की गलती भगत सिंह मामले को गलत ठहराना  गाँधी का वह पत्र
उनके प्रयास का पहला पत्र 23 मार्च 1931 को सुबह लिखा गया। उन्होंने लिखा, “प्रिय मित्र आपको यह पत्र लिखना आपके प्रति क्रूरता करने जैसा लगता है लेकिन शांति के लिए अंतिम अपील करना आवश्यक है। यद्दपि आपने मुझे साफ-साफ बता दिया था कि भगत सिंह और अन्य दो की सज़ा में रियायत किए जाने की आशा नहीं है ।फिर भी आपने मेरे शनिवार के निवेदन पर विचार करने को कहा था। यदि इस पर विचार करनें की गुंज़ाइश हो तो मैं आपका ध्यान निम्न बातों की ओर दिलाना चाहता हूं। बकौल गाँधी
जनमत सही हो या गलत सज़ा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर ना हो तो लोकमत का पालन करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। प्रस्तुत मामले में स्थिति ऐसी है कि यदि सज़ा हल्की की जाती है तो आंतरिक शांति की स्थापना करने  में मदद मिलेगी। अन्यथा नि:संदेह शांति खतरे में पड़ जाएगी।
इस पत्र के आग्रह करने के पश्चचात् 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 की वह शाम जब क्रांति का सूर्य अस्त हो गया। इसमें तीन लोगों को फांसी दी गई जिसमें सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर चढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। गाँधी जी ने अपने वक्तव्य में लिखा कि अंग्रेज़ों नें क्रांतिकारियों को शांत करने का एक और मौका गंवा दिया। यह निश्चय ही अपरिमित पशुबल की शक्ति को साबित करने वाला कदम है।

गांधी की गलती भगत सिंह मामले को गलत ठहराना    गाँधी गो बैकके नारे
इसके बाद 25 मार्च को कराची के अधिवेशन में जिसकी अध्यक्षता सरदार पटेल कर रहे थे उसमें गाँधी का बहुत विरोध हुआ। गाँधी गो बैकके नारे लगे और काली पट्टी पहनकर उनके खिलाफ प्रदर्शन  किया गया। गाँधी ने यह सब देखकर कहा कि ये देशभक्त हैं और इनका गुस्सा जायज़ है।
भगत सिंह के एक कार्य में नेहरू का सहयोग करने पर गाँधी ने कहा था कि यह सब हमारे सिद्धांतों के असंगत हैं। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो गाँधी जी ने कभी सार्थक प्रयास नहीं किया था। भले ही वह ये कहते रहे हों कि हम जितनी कोशिश कर सकते थे   हमने किया
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                                                                                                                                                                                 धन्यवाद

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