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Sunday 20 October 2019

गाँधी ने खिलाफत आंदोलन को गलत तरीके से पेश कीया

दोस्तों जब भी हम किसी देश के पीछे रहने के कारणो पर गौड़ करेगे ।  तो हमें उस देश के नेताओ का हाथ दीखेगा । ये गलतियां शुरू से ही शुरू हो जाती है । और अगर नेताओ के नियत में ही
 खोट हो तब तो ये गलतियां बहुत होती है ।
क्योकी ऐसे नेता देश के निर्माता नही विनाशक की भूमिका निभाते है । इन नेताओं को विदेशीयो से बहुत सम्मान भी मिलता है । क्योकी की ऐसे नेताओं के कारण ही देश दूसरे देशो से पिछड़ा रहता है ।
                जो अधिकतर मुल्क चाहते है । जब हिन्दुस्तान के पाकिस्तान के बराबर रहने व चीन के पीछे रहने के कारणों पर  गौड़ करेंगे तो हमे भारत के सबसे बड़े निर्माता बने विनाशको में सबसे ऊपर गाँधी दिखेगे ।
आप मे से बहुतों मेरे विचार से असहमत होंगे पर दोस्तों सच इतना कड़वा होता है ।
          तभी तो झूठ की चाँदी है । भारत के निर्माण की सबसे अधिक भार गाँधी पर थी । पर वही देश को पीछे रखने के सबसे बड़े साजिश करता थे । उनकी इसी साजिश के चलते आज हिन्दुस्तान चीन से पीछे रह गया । इन्होंने गलतियों की झड़ी लगादी जिस के कारण आज भारत पाक के बराबर रह गया चीन के साथ या आगे नही        हो सका । इनकी इन्ही गलतियों में खिलाफत आंदोलन को गलत तरीके से पेश करना  है
 भारत में महात्मा गांधी का पहला बड़ा राजनीतिक अभियान खिलाफत आंदोलन में भाग लेना था।
 यह मुहिम कुछ भारतीय मुसलमानों द्वारा शुरू की गई थी। उद्देश्य था तुर्की में इस्लाम के खलीफा सुल्तान की गद्दी और उसका साम्राज्य बचाना। मई 1919 से खिलाफत सभाओं में गांधी जी के भाषण शुरू हुए।
खिलाफतवादियों ने 17 अक्टूबर, 1919 को ‘खिलाफत दिवस’ मनाया। उसका गांधी जी ने खूब प्रचार - प्रसार किया था। दिल्ली में 23 नवंबर 1919 को अखिल भारतीय खिलाफत कांफ्रेंस हुई जिसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। इन सम्मेलनों में आंदोलन के विस्तार की योजना बनी थी ।
          जिसमें सरकार द्वारा दी गई उपाधियां लौटाने, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने और टैक्स न देने का आह्वान किया गया। ये आह्वान अपने यहां इतिहास के पाठों में पढ़े-पढ़ाए जाते हैं ।
 मगर वह सब खिलाफत के लिए हुआ था। आजादी आन्दोलन से इसका कोई लेना देना नही था । अब जड़ा सोचिये गाँधी के लिये आजादी से अधिक पहले तुर्की जरूरी मुद्दा था । क्या ऐसी सोच के व्यक्ति को राष्ट्रपिता कहा जाना चाहिये । दोस्तो आज
          आंबेडकर ने अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (1940) में लिखा ‘सच्चाई यह है। कि असहयोग आंदोलन का जन्म खिलाफत आंदोलन के लिये हुआ । न कि स्वराज्य के लिए काँग्रेसी आंदोलन से। खिलाफत वादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया और कांग्रेस ने उसे खिलाफत वादियों की सहायता के लिए अपनाया क्योकी गाँधी की मर्जी थी ये । उसका मूल उद्देश्य स्वराज्य नहीं । 
बल्कि खिलाफत था । और स्वराज्य को गौण उद्देश्य बनाकर उसे (बाद में) जोड़ दिया गया था । ताकि हिंदू भी          उसमें भाग लें। इसी प्रकार एनी बेसेंट के शब्दों में  ‘खिलाफत-गांधी एक्सप्रेस’ का तूफान चला। यह आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस की पिछली परंपरा झटके में उड़ गई।
गांधी ने खिलाफत को ‘मुसलमानों की गाय’ कहकर हिंदुओं को प्रेरित किया। मतलब जैसे हिंदू गाय पूजते हैं । उसी तरह मुसलमान अपने खलीफा को ।
जबकि मुस्लिम जगत में कहीं खिलाफत की परवाह न थी। उल्टे अरब के मुसलमान तुर्की के खलीफा से मुक्ति चाहते थे। खुद तुर्क लोग  खिलाफत  के भार से आजिज थे।
             यह स्वयं महान तुर्क नेता कमाल पाशा ने कहा था। उन्होंने ही पहले ऑटोमन-तुर्क सल्तनत और फिर खिलाफत को 1924 में खत्म कर दिया। पर गाँधी ने मुसलमानों में अपनी पहुंच बनाने के लिये इसे भारत मे प्रसार किया उन्होंने अपने स्वार्थ के लिये भारत के मुल्ला मौलवी को राजनीतिक मंच दे दिया
और यही से भारत मे कट्टर मुस्लिमवाद का उदय होगया जिसे आने बाले हर नेताओं ने सिरोधार्य कर लिया और                               उन्हें ये तरक्की पाने का  शॉर्टकट रास्ता लगा । इसी के कारण मुसलमानो में हिन्दू विरोधी भावनाएं पैदा हुई । जिसके कारण आज भारत  पाकिस्तान के बराबर है ।  ना की चीन के साथ
जब गांधी जी खिलाफत आंदोलन चला रहे थे, उसी समय तुर्क उसे खत्म कर रहे थे। सामान्य बुद्धि से भी खिलाफत के उद्देश्य समर्थन योग्य नहीं थे।
                                     तुर्की साम्राज्य बनाए रखने का मतलब था ।  कई देशों को तुर्की का उपनिवेश बनाए रखना । पर गांधी जी ने यंग इंडिया (2 जून, 1920) में लिखा   मेरे विचार से तुर्की का दावा न केवल नैतिक एवं न्यायपूर्ण है। बल्कि पूर्णत: न्यायोचित है ।  क्योंकि तुर्की वही चाहता है। जो उसका अपना है।
         गैर-मुस्लिम और गैर-तुर्की जातियां अपने संरक्षण के लिए जो गारंटी आवश्यक समझें, ले सकती हैं । ताकि तुर्की के आधिपत्य के अंतर्गत ईसाई अपना और अरब अपना स्वायत्त शासन चला सकें।’ गांधी जी ने आगे लिखा, ‘मैं यह विश्वास नहीं करता कि तुर्क निर्बल, अक्षम या क्रूर हैं।
यह भी गलत था, क्योंकि तुर्कों ने आर्मेनियाई जनसंहार (1915) किया था। उसमें दस-पंद्रह लाख आर्मेनियाई                         लोगों का तुर्कों ने सफाया किया। उन्हीं को गांधी जी दयालु कह रहे थे।
जिन्ना ने भी कहा कि खिलाफत पुराने जमाने  की चीज है। और उसका साम्राज्य अब नहीं रह सकता। वैसी साम्राज्यवादी सत्ता बचाने में कुछ कठमुल्लों के साथ जुड़ जाना बहुत बड़ी भूल थी।
चौरी-चौरा कांड के बहाने गांधी जी ने जब आंदोलन वापस लिया तो इसी लिए कि उन्हें वास्तविकता समझ आ गई थी।                 बहरहाल इस्लाम के लिए मुसलमानों में आवेश पैदा कर । उसमें हिंदुओं को झोंककर एक साल में स्वराज लेने का प्रलोभन देकर गांधी जी ने जो आंधी पैदा की उससे समाज में गहरी दरार पड़ी।  इस्लाम खतरे में  के नारे से मुसलमानों में काफिरों  के विरुद्ध जिहादी जोश भरा।
                फलत: मालाबार में अगस्त 1920 में हिंदुओं पर ऐसे हृदयविदारक अत्याचार किए गए । डॉ. आंबेडकर के शब्दों में समग्र दक्षिण भारत के हिंदुओं में भय की एक भयानक लहर दौड़ गई। किंतु गांधी जी ने उन अत्याचारों की निंदा तो दूर ।  बल्कि प्रच्छन्न प्रशंसा की। उन्होंने कांग्रेस को भी मोपला अत्याचारों पर कोई                       ऐसा प्रस्ताव लेने से रोका ताकि  मुसलमानों की भावनाओं को आघात न पहुंचे।
कांग्रेस नेता और विद्वान के .एम. मुंशी के अनुसार अधिकांश नेता मानते थे कि गांधी जी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं । जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिंदू-मुस्लिमों की राजनीतिक                    भागीदारी घटेगी। जिन्ना ने भी गांधी जी को चेतावनी दी थी कि मुल्ले-मौलवियों को राजनीतिक मंच देकर वह बड़ी भूल कर रहे हैं।
इस मसले पर लाला लाजपत राय, एनी बेसेंट, रवींद्रनाथ टैगोर, श्रीअरविंद आदि मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी।                                                                                                                                     मौलाना आजाद सुभानी जैसे मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘22 करोड़ हिंदुओं’ को मानते थे। और इन्ही लोगो का साथ गाँधी ने दिया  जिसके कारण आज भारत की ये दुर्दशा है ।
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